©️ मनोजकुमार साहु
महाभारत में गुरुद्रोण और एकलव्य की कहानी सबने पढ़ी और सुनी होगी। यह तो रही द्वापर की कहानी। लेकिन इस कलयुग में एक एकलव्य की कहानी सबको पढ़नी चाहिए।
ओड़िशा राज्य की घटना है।
इसके बाद एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। लगातार अभ्यास करने से वह भी धनुर्विद्या सीख गया।
एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो।
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