कवि मनोज कुमार साहु
हालत नाजुक देखकर उसकी
मेरे दिल में कुछ-कुछ हुआ
हिलोरे मारे
मन समंदर
पास जाकर उसका बैठा
हाथ बढ़ाया
छूने के लिए
शर्म से लथपथ नवल प्रियतमा ।
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प्रियतमा (17)
विवेक कहता था
हट जा दूर
मत छू वह है ज्वाला
मन कहता था -
तोडूँगा जंजीर ,
रोक सकता तो रोक के दिखला
किंकर्तव्यविमूढ़ आशिक थरथरा गया
हारा विवेक जीती नवोढ़ा प्रियतमा ।
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प्रियतमा (18)
अडिग विवेक सफरा बन
सीमा लांघने ना दिया
हथेली पकड़ प्रेमिका की
सहसा छोड़े प्रियवर
अपने हाथ को चूम - चूम कर
गाढ़ दिए उस पर
दौड़ गई बिजली ,बंध गई शमा
क्या करती बिचारी बेबस प्रियतमा ।
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