कवि : मनोज कुमार साहु
ओड़िशा
प्रियतमा ( 19 )
खींच ली माशूक के हाथ
चूम - चूम के रखी उर पर
पूर्ण हुआ शून्यता
आंखें हुई बंद
था दिल में बहूमान
डर सिहरन प्रेम पुलक
समर्पण भाव से अपने को समर्पित कर
मोम की मूर्ति बन बैठे प्रियतमा ।
प्रियतमा ( 20 )
कठोर कर - कोमल हृदय का मिलन
धक - धक धड़कते रहे दो दिल
जैसे मिलन नदी और समंदर का
संयोग सुमन शबनम का
परस्पर परस्पर उतावले बनने को
प्यासे होंठ, भरा हुआ प्याला
हाथ प्रियतम के
जकड़ी धरती प्रियतमा
प्रियतमा ( 21 )
प्रियतम कैसे कर पाता दूर
महसूस करा प्रिया की धड़कन
जैसे हथेली के कान निकल आए
और सुनता रहा मधुर से मधुर
संगीत झंकार, व्यथा - उल्लास - पीड़ा
प्रियतम का धर्य बाँध टूटा
एक छलांग से कूदान मार
बाहों में आ गई प्रियतमा
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